Sunday, 10 May 2015

जामवन्त आज भी जिंदा हैं, जानिए उनके जीवन का रहस्य -

जामवन्त को ऋक्षपति कहा जाता है। यह ऋक्ष बिगड़कर रीछ हो गया जिसका अर्थ होता है भालू अर्थात भालू के राजा। लेकिन क्या वे सचमुच भालू मानव थे? रामायण आदि ग्रंथों में तो उनका चित्रण ऐसा ही किया गया है। ऋक्ष शब्द संस्कृत के अंतरिक्ष शब्द से निकला है। 
दरअसल दुनियाभर की पौराणिक कथाओं में इस तरामंडल को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, लेकिन सप्तऋषि तारामंडल मंडल को यूनान में बड़ा भालू (larger bear) कहा जाता है। इस तरामंडल के संबंध में प्राचीन भारत और यूनान में कई दंतकथाएं प्राचलित हैं।
पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र, दुर्वासा, अश्वत्थामा, राजा बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डेय ऋषि, वेद व्यास और जामवन्त आदि कई ऋषि, मुनि और देवता सशरीर आज भी जीवित हैं। कहते हैं कि जामवन्तजी बहुत ही विद्वान् हैं। वेद उपनिषद् उन्हें कण्ठस्थ हैं। वह निरन्तर पढ़ा ही करते थे और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उन्होंने लम्बा जीवन प्राप्त किया था। परशुराम और हनुमान के बाद जामवन्त ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके तीनों युग में होने का वर्णन मिलता है और कहा जाता है कि वे आज भी जिंदा हैं। लेकिन परशुराम और हनुमान से भी लंबी उम्र है जामवन्तजी कि क्योंकि उनका जन्म सतयुग में राजा बलि के काल में हुआ था। परशुराम से बड़े हैं जामवन्त और जामवन्त से बड़े हैं राजा बलि।
रामायण काल में हमारे देश में तीन प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व था। उत्तर भारत में आर्य संस्कृति जिसके प्रमुख राजा दशरथ थे, दक्षिण भारत में अनार्य संस्कृति जिसका प्रमुख रावण था और तीसरी संस्कृति देश के मध्य भारत में आरण्यक संस्कृति (जनजातीय और आदिवासी) के रूप में अस्तित्व में थी जिसके संरक्षक महर्षि अगस्त्य मुनि थे। अगस्त मुनि, वनवासियों के गुरु व मार्ग-दर्शक थे। ऋक्ष और वानर, बाली, सुग्रीव, जामवन्त, हनुमान, नल, नील आदि अस्त्य मुनि के शिष्य थे। 
कहा जाता है कि जामवन्त सतयुग और त्रेतायुग में भी थे और द्वापर में भी उनके होने का वर्णन मिलता है। जामवन्त एक रीछ थे या किसी देवता की संतान? आखिर जामवन्तजी इतने लंबे काल तक कैसे जिंदा रहे? यह सब हम जाएंगे अगले पन्ने पर..

अग्नि पुत्र जामवन्त : प्राचीन काल में इंद्र पुत्र, सूर्य पुत्र, चंद्र पुत्र, पवन पुत्र, वरुण पुत्र, ‍अग्नि पुत्र आदि देवताओं के पुत्रों का अधिक वर्णन मिलता है। उक्त देवताओं को स्वर्ग का निवासी कहा गया है। एक ओर जहां हनुमानजी और भीम को पवन पुत्र माना गया है, वहीं जामवन्तजी को अग्नि पुत्र कहा गया है। जामवन्त की माता एक गंधर्व कन्या थी। जब पिता देव और माता गंधर्व थीं तो वे कैसे रीछमानव हो सकते हैं? 
एक दूसरी मान्यता अनुसार भगवान ब्रह्मा ने एक ऐसा रीछ मानव बनाया था जो दो पैरों से चल सकता था और जो मानवों से संवाद कर सकता था। पुराणों अनुसार वानर और मानवों की तुलना में अधिक विकसित रीछ जनजाति का उल्लेख मिलता है। वानर और किंपुरुष के बीच की यह जनजाति अधिक विकसित थी। हालांक‍ि इस संबंध में अधिक शोध किए जाने की आवश्यकता है I

जामवन्त का जन्म : माना जाता है कि देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता के लिए जामवन्त का जन्म ‍अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता एक गंधर्व कन्या थीं। 
सृष्टि के आदि में प्रथम कल्प के सतयुग में जामवन्तजी उत्पन्न हुए थे। जामवन्त ने अपने सामने ही वामन अवतार को देखा था। वे राजा बलि के काल में भी थे। राजा बलि से तीन पग धरती मांग कर भगवान वामन ने बलि को चिरंजीवी होने का वरदान देकर पाताल लोक का राजा बना दिया था। वामन अवतार के समय जामवन्तजी अपनी युववस्था में थे। जामवन्त को चिरं‍जीवियों में शामिल किया गया है जो कलियुग के अंत तक रहेंगे।
राम युग में जामवन्त : त्रेतायुग में भी जामवन्त बूढ़े हो चले थे। राम के काल में उन्होंने भगवान राम की सहायता की थी। कहते हैं कि जामवन्तजी समुद्र को लांघने में सक्षम थे लेकिन त्रेतायुग में वह बूढ़े हो चले थे। इसीलिए उन्होंने हनुमानजी से इसके लिए विनती थी कि आप ही समुद्र लांघिये। वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में जामवन्त का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जब हनुमानजी अपनी शक्ति को भूल जाते हैं तो जामवन्तजी ही उनको याद दिलाते हैं।
जामवन्त के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥
रामायण अनुसार वानर सेना में अंगद, सुग्रीव, परपंजद पनस, सुषेण (तारा के पिता), कुमुद, गवाक्ष, केसरी, शतबली, द्विविद, मैंद, हनुमान, नील, नल, शरभ, गवय लोग शामिल थे।
माना जाता है कि जामवन्तजी आकार-प्रकार में कुंभकर्ण से तनीक ही छोटे थे। जामवन्त को परम ज्ञानी और अनुभवी माना जाता था। उन्होंने ही हनुमानजी से हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का वर्णन किया था जिसमें से एक संजीविनी थी।
मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्‌॥- युद्धकाण्ड 74-33 
विशल्यकरणी (शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली), सन्धानी (घाव भरने वाली), सुवर्णकरणी (त्वचा का रंग ठीक रखने वाली) और मृतसंजीवनी (पुनर्जीवन देने वाली)। 

जामवन्त का अहंकार : राम-रावण के युद्ध में जामवन्तजी रामसेना के सेनापति थे। युद्ध की समाप्त‌ि के बाद जब भगवान राम विदा होकर अयोध्या लौटने लगे तो जामवन्तजी ने उनसे कहा कि प्रभु इतना बड़ा युद्ध हुआ मगर मुझे पसीने की एक बूंद तक नहीं गिरी, तो उस समय प्रभु श्रीराम मुस्कुरा दिए और चुप रह गए। श्रीराम समझ गए कि जामवन्तजी के भीतर अहंकार प्रवेश कर गया है।
जामवन्त ने कहा, प्रभु युद्ध में सबको लड़ने का अवसर मिला परंतु मुझे अपनी वीरता दिखाने का कोई अवसर नहीं मिला। मैं युद्ध में भाग नहीं ले सका और युद्ध करने की मेरी इच्छा मेरे मन में ही रह गई। उस समय भगवान ने जामवन्तजी से कहा, तुम्हारी ये इच्छा अवश्य पूर्ण होगी जब मैं अगला अवतार धारण करूंगा। तब तक तुम इसी स्‍थान पर रहकर तपस्या करो।

द्वापर युग में जामवन्त : स्यमंतक मणि को इंद्रदेव धारण करते हैं। कहते हैं कि प्राचीनकाल में कोहिनूर को ही स्यमंतक मणि कहा जाता था। कई स्रोतों के अनुसार कोहिनूर हीरा लगभग 5,000 वर्ष पहले मिला था और यह प्राचीन संस्कृत इतिहास में लिखे अनुसार स्यमंतक मणि नाम से प्रसिद्ध रहा था। दुनिया के सभी हीरों का राजा है कोहिनूर हीरा। यह बहुत काल तक भारत के क्षत्रिय शासकों के पास रहा फिर यह मुगलों के हाथ लगा। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे हासिल किया और अब यह हीरा ब्रिटेन के म्यूजियम में रखा है। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है कि कोहिनूर हीरा ही स्यमंतक मणि है? यह शोध का विषय हो सकता है। यह एक चमत्कारिक मणि है।
भगवान श्रीकृष्ण को इस मणि के लिए युद्ध करना पड़ा था। उन्होंने मणि के लिए नहीं बल्कि खुद पर लगे मणि चोरी के आरोप को असिद्ध करने के लिए जाम्बवंत से युद्ध करना पड़ा था। दरअसल, यह मणि भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित के पास थी और उन्हें यह मणि भगवान सूर्य ने दी थी।
सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रखी ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंतजी ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी। इधर सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर आरोप लगा दिया कि यह मणि उन्होंने चुराई है।
तब श्रीकृष्ण को यह मणि हासिल करने के लिए जाम्बवंतजी से युद्ध करना पड़ा। बाद में जाम्बवंत जब युद्ध में हारने लगे तब उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम को पुकारा और उनकी पुकार सुनकर श्रीकृष्ण को अपने रामस्वरूप में आना पड़ा। तब जाम्बवंत ने समर्पण कर अपनी भूल स्वीकारी और उन्होंने मणि भी दी और श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप मेरी पुत्री जाम्बवती से विवाह करें।
जाम्बवती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया। इस साम्ब के कारण ही कृष्ण कुल का नाश हो गया था। श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है अत: श्रीकृष्ण ने वह मणि अक्रूरजी को दे दी। उन्होंने कहा कि अक्रूर, इसे तुम ही अपने पास रखो। तुम जैसे पूर्ण संयमी के पास रहने में ही इस दिव्य मणि की शोभा है। श्रीकृष्ण की विनम्रता देखकर अक्रूर नतमस्तक हो उठे।

यहां युद्ध हुआ था श्रीकृष्ण से : गुजरात के पोरबंदर से 17 किलोमीटर दूर राजकोट-पोरबंदर मार्ग पर एक गुफा पाई गई है जिसे जामवन्त की गुफा कहा जाता है। माना जाता है कि यह वही स्थान है जहां भगवान कृष्ण और जामवन्त के बीच युद्ध हुआ था। माना जाता है कि इस गुफा में दो सुरंग हैं। पहली सुरंग जानाघर जो जाती है और दूसरी द्वारिका के लिए।

जामथुन नगरी : माना जाता है कि जामथुन नामक नगरी जामवन्त ने बसाई थी। यह प्राचीन नगरी मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में उत्तर-पूर्व में स्थित है। यहां एक गुफा मिली है जो जामवन्त का निवास स्थान माना जाता है।
बरेली की गुफा : उत्तर प्रदेश के बरेली के पास जामगढ़ में भी एक प्राचीन गुफा है। माना जाता है कि जामवन्तजी यहां हजारों वर्ष रहे थे। बरेली से लगभग सोलह किलोमीटर दूर विंध्याचल की पहाड़ी पर पुराकाल से ही गणेश-जामवन्त की प्रतिमा स्थापित हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि जामवन्तजी द्वारा स्थापित यह प्रतिमा प्रतिवर्ष एक तिल के बराबर बढ़ती जा रही है।

जामवन्त तपोगुफा : जम्मू और कश्मीर के जम्मू नगर के पूर्वी छोर पर एक गुफा मंदिर बना हुआ है जिसे जामवन्त की तपोस्थली माना जाता है। इस गुफा में कई पीर-फकीरों और ऋषियों ने ज़्ह तपस्या की है इसलिए इसका नाम 'पीर खोह्' भी कहा जाता है। डोगरी भाषा में खोह् का अर्थ गुफा होता है।
पीर खोह् तक पहुंचने के लिए श्रद्धालु मुहल्ला पीर मिट्ठा के रास्ते गुफा तक जाते हैं। मंद‌िर की दीवारों पर देवी-देवताओं के मनमोहक चित्र उकेरे गए हैं। आंगन में श‌िव मंद‌िर के सामने पीर पूर्णनाथ और पीर स‌िंध‌िया की समाधिंया हैं। जामवन्त गुफा के साथ एक साधना कक्ष का निर्माण किया है जो तवी नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है।

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