Friday, 1 May 2015

मैं कौन हूँ ? -

आत्मा - नित्य अतः सर्वव्याप्त अतः स्थिर अतः अचल सत्ता !!!
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं,
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥

यह आत्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न गलनेवाला और न सूखनेवाला है। आपस में एक दूसरे का नाश कर देने वाले पंचभूत इस आत्मा का नाश करने के लिए समर्थ नहीं है। इसलिए यह नित्य है। नित्य होने से सर्वगत है। सर्वव्यापी होने से स्थाणु (ठूँठ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होने से यह आत्मा अचल है और इसीलिए सनातन है। अर्थात किसी कारण से नया उत्पन्न नहीं हुआ है। पुराना है। 

(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय - २, श्लोक - २४)

यहाँ भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं कि यह आत्मा नित्य है यानी काल का कोई भी क्षण ऐसा नहीं आएगा जब यह अनित्य हो जाए अतः अनंत काल तक रहने वाला अनंत (जिसका अंत ना हो) है। बल का प्रयोग करके हम मुट्ठी बांधते हैं। बल की समाप्ति के साथ ही मुट्ठी खुल जाती है। यदि कभी बल ही नहीं लगा हो तो मुट्ठी खुली ही रहेगी। कहने का तात्पर्य है - संयोग होने से ही वियोग संभव है। यदि वियोग नहीं है तो संयोग कभी हुआ हो यह संभव नहीं है। अतः अनादि (जिसका आरम्भ ना हो) है।  यानी इस पर कोई भी बल कभी नहीं लगा अतः यह अनंत विस्तारित है अर्थात सर्वव्याप्त है। सर्वव्याप्त यानी विदित और अविदित से भी परे है। कोई भी स्थान इस तत्व से खाली नहीं होने के कारण इसका हिलना भी संभव नहीं अतः स्थिर है। स्थिर होने के कारण चालायमान नहीं है अर्थात अचल है और इसीलिए सनातन है।

मैं, मी, आमी, मुअ, I की आवाज इसी की है ! यही मैं हूँ, यही आप हैं, यही वह है, यही हम सब हैं, यही प्राणी मात्र की सत्ता है। अतः किसी भी काल में हमारा विनाश संभव नहीं है। हम सब अमर हैं, अनंत हैं ! 

चूँकि आत्मा सर्वव्याप्त है अतः आपके दाहिने, बाएँ, आगे, पीछे, आपके चारों तरफ जो भी रिक्त या भरा स्थान है, जहाँ तक आपकी नजर जाती है और जहाँ आपकी नजर नहीं पहुँच रही है - आप की ही सत्ता है। सिद्ध होता है कि अभी इस समय हम सब हर योनि (सभी ८४ लाख) में स्थित हैं। जिन-जिन लोकों का हमने नाम सुना है तथा वे भी जिनका नाम नहीं सुना उनमें भी, नर्क लोक, पितृ लोक, स्वर्ग लोक में भी, सूरज, चाँद, समस्त ग्रहों, नक्षत्रों में भी, सभी तारों में भी, कण-कण में भी, विदित और अविदित से भी परे !!
आत्मा अचल है अतः आपके शरीर में न आत्मा बंधा है और न आपके शरीर के साथ चल रहा है क्योंकि आत्मा स्थिर है। आप कहेंगे, ये कैसे हो सकता है ? मैं तो प्रमाण के समान आत्मा को अपने साथ बंधा हुआ और चलता हुआ पा रहा हूँ। आइये इसे समझने का प्रयास करते हैं। मैं अभी जिस स्थान पर हूँ, वहाँ पर स्थित हवा को साँस के रूप में ग्रहण कर रहा हूँ। अब अगर मैं दूसरे स्थान पर जाऊँ तो उस दूसरे स्थान पर स्थित हवा के अंश को ही साँस के रूप में ग्रहण करूँगा  ना कि पहले स्थान के हवा के अंश को साथ लेकर जाऊँगा। मैं जहाँ भी जाऊँ वहीं पर मेरे साँस लेने के लिए हवा उपलब्ध है। और स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास करते हैं। पूरी पृथ्वी पर ऑक्सिजन उपलब्ध है अतः ऑक्सिजन लेने के लिए पृथ्वी पर हमें ऑक्सिजन का सिलिंडर बाँध कर चलने की आवश्यकता नहीं है। ठीक उसी प्रकार चूंकि आत्म तत्व हर बिंदु पर है, उसे बाँध कर चलने की आवश्यकता नहीं है। हवा तो फिर भी मेरी सत्ता से अलग और कहीं-कहीं प्रदूषित भी है। किन्तु, आत्मसत्ता तो मैं ही हूँ जो हर बिंदु पर एक समान है। 
आत्मा सर्वव्याप्त और स्थिर है, अतः वह भटक कर जाएगा कहाँ ? आत्मा के भटकने की बात कोरी कल्पना है। चूंकि आत्मा सर्वव्याप्त है अतः इसका छोटा से छोटा अंश भी निकाल नहीं सकते। निकाल कर रखने के लिए स्थान कहाँ है? और न ही कुछ जोड़ सकते हैं; क्या कहाँ जोड़ेंगे? कई सम्प्रदाय एक शब्द कहते हैं - 'आत्मशक्ति' और इस शक्ति को घटने और बढ़ने वाला मानते हैं। लेकिन आत्मा में कुछ भी बढ़ने और घटने वाला नहीं है। आत्मा जैसा है वैसा है। 
यह भी सिद्ध हो जाता है कि मृत्यु होने पर शरीर से आत्मा नहीं निकलती है। तो फिर क्या निकलता है ? इस पर बाद में प्रकाश डालेंगे।
भगवान ने उपरोक्त श्लोक में जो कहा है वह वैज्ञानिक सिद्धांतों से भी सिद्ध होता है लेकिन स्थान, काल और पात्रता को ध्यान में रखते हुए यहाँ उसे बताने में मैं असमर्थ हूँ। 


इसी सर्वव्याप्त सत्ता की उपलब्धि का नाम 'मोक्ष' है !


जय श्री कृष्ण !! 



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1 comment:

  1. जहाँ तक आत्मा का सवाल है जन्म से पहले भी आत्मा था और मृत्यु के बाद भी आत्मा रहेगा |
    आत्मा एक संस्कार है जो कई जन्मो से अनुभव करते हुए इस जन्म में हमारा निजी व्यक्तित्व दर्शाता है | मानव जन्म एक ऐसा अनुभूति है जिससे पुरुषार्त कर हम अपनी संकल्प से भगवान के हो सकते हैं, ऋद्धि सिद्धि पा सकते हैं, मोक्ष के लिए प्रयत्न कर सकते हैं, अगले जन्म बेहतर बनाने हेतु अधिक पुण्य कार्य कर सकते हैं, मौज मस्ती जी सकते हैं, खूब धन कमाकर जिंदगी को आरामदायक बना सकते हैं इत्यादि |

    सबसे बढियां इस बात से हैं कि अच्छे आदर्शवाद इंसान बनकर औरों के दुखदर्द में शामिल होकर, रिश्तों को बखूबी से निभाते हुए, समाज को अच्छी राह दिखाते हुए, अपनी तरक्की करते हुए औरों को शामिल करने में जो आनंद आता है वह स्वर्ग के आनंद से काम है |

    आजकल के आतंकवाद और भ्रष्टाचार में पले लोग आसुरी संकल्प दासी हो रहे हैं जो तमोगुणी या रजोगुणी को दर्शाता है | ऐसे कई समाज के इज़्ज़तदार लोग हैं जो अपने को सत्वगुनी दर्शाते हुए लोगों को अपनी जाल में फंसकर अपनी स्वार्थ पूर्ती करने में लगे हैं वे सत्वगुणी की आड़ में तमोगुणी या रजोगुणी पाल रहे हैं | ऐसे लोग अंधकार में जी रहे हैं |

    महात्मा पुरुष या संत पुरुष निर्गुण तत्त्व में जीते हैं | सांसारिक प्रलोभन से दूर अपनी संकल्प की सही राह में चलते हुए अपने में दिव्यता प्रगट करते हैं | यही मानव जीवन की सत्यता है |

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