आप सोच रहे होंगे हनुमान तो त्रेतायुग में हुए फिर सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं? इसका जवाब है कि इस युग में पवनपुत्र भगवान श्रीशंकर के स्वरूप से विश्व में स्थित थे, तभी तो उन्हें शिवस्वरूप (आठ रुद्रावतारों में से एक) लिखा और कहा गया है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में उन्हें शंकर सुवन केसरी नंदन कहकर संबोधित किया है।
त्रेतायुग में जब-जब श्रीराम ने हनुमानजी को गले से लगाया, तब-तब भगवान शंकर अति प्रसन्न हुए हैं। सतयुग में भोलेनाथ पार्वती से उनके स्वरूप का वर्णन करते हैं और वे उसी युग में पार्वती से दूर रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। अत: यह प्रमाणित है कि श्रीहनुमानजी सतयुग में शिवरूप में थे और शिव तो अजर-अमर हैं।
त्रेतायुग में तो पवनपुत्र हनुमान ने केसरी नंदन के रूप में जन्म लिया और वे राम के भक्त बनकर उनके साथ छाया की तरह रहे। वाल्मीकि 'रामायण' में हनुमानजी के संपूर्ण चरित्र का उल्लेख मिलता है। हनुमानजी के त्रेतायुग में होने के हजारों प्रमाण मिलते हैं।
सभी हैं हनुमान के ऋणी : श्रीराम, भरत, सीता, सुग्रीव, विभीषण और संपूर्ण कपि मंडल, कोई भी उनके ऋण से मुक्त अर्थात उऋण नहीं हो सकता। इस प्रकार त्रेतायुग में तो हनुमानजी साक्षात विराजमान हैं। इनके बिना संपूर्ण चरित्र पूर्ण होता ही नहीं।
ऐतिहासिक प्रमाण : वानर समान एक विलक्षण जाति हनुमान विषयक रामायण के समस्त वर्णन को मनन करने पर यह सिद्घांत स्थिर होता है कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भी भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 हजार वर्ष पूर्व लुप्त हो गई। बच गए बस हनुमान!
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के चालीसवें अध्याय में इस बारे में प्रकाश डाला गया है। लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञतास्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।
अर्थात : 'हे वीर श्रीराम। इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहे।' इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- 'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।'
अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।'
द्वापर युग में हनुमानजी भीम की परीक्षा लेते हैं। इसका बड़ा ही सुंदर प्रसंग है। महाभारत में प्रसंग हैं कि भीम उनकी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूछ नहीं हटा पाते हैं।
दूसरा प्रसंग अर्जुन से जुड़ा है। अर्जुन के रथ पर हनुमान के विराजित होने के पीछे भी कारण है। एक बार किसी तीर्थ में अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है। इस पहली मुलाकात में हनुमानजी से अर्जुन ने कहा- अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे? हनुमानजी- हां। तभी अर्जुन ने कहा- आपके स्वामी श्रीराम तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे तो फिर उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतु बनवाने की क्या आवश्यकता थी? यदि मैं वहां उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का सेतु बना देता जिस पर चढ़कर आपका पूरा वानर दल समुद्र पार कर लेता।
इस पर हनुमानजी ने कहा- असंभव, बाणों का सेतु वहां पर कोई काम नहीं कर पाता। हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो बाणों का सेतु छिन्न-भिन्न हो जाता। अर्जुन ने कहा- नहीं, देखो ये सामने सरोवर है, मैं उस पर बाणों का एक सेतु बनाता हूं। आप इस पर चढ़कर सरोवर को आसानी से पार कर लेंगे। हनुमानजी ने कहा- असंभव। तब अर्जुन ने कहा- यदि आपके चलने से सेतु टूट जाएगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा। हनुमान ने कहा- मुझे स्वीकार है। मेरे दो चरण ही इसने झेल लिए तो मैं हार स्वीकार कर लूंगा।
तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से सेतु तैयार कर दिया। जब तक सेतु बनकर तैयार नहीं हुआ तब तक तो हनुमान अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान ने विराट रूप धारण कर लिया।
हनुमान राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।
तभी श्रीहनुमानजी सेतु से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। अग्नि प्रज्वलित हुई और जैसे ही हनुमान अग्नि में कूदने चले वैसे भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और बोले ठहरो! तभी अर्जुन और हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया।
भगवान ने सारा प्रसंग जानने के बाद कहा- हे हनुमान, आपका तीसरा पग सेतु पर पड़ा, उस समय मैं कछुआ बनकर सेतु के नीचे लेटा हुआ था। आपकी शक्ति से आपके पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से रक्त निकल गया। यह सेतु टूट तो पहले ही पग में जाता यदि में कछुआ रूप में नहीं होता तो।
यह सुनकर हनुमान को काफी कष्ट हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी। मैं तो बड़ा अपराधी निकला आपकी पीठ पर मैंने पैर रख दिया। मेरा ये अपराध कैसे दूर होगा भगवन्? तब कृष्ण ने कहा, ये सब मेरी इच्छा से हुआ है। आप मन खिन्न मत करो और मेरी इच्छा है कि तुम अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो।
इसलिए द्वापर में श्रीहनुमान महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के ऊपर ध्वजा लिए बैठे रहते हैं।
हनुमानजी कलियुग में गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है...
''यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥''
अर्थात: कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं। सीताजी के वचनों के अनुसार- अजर-अमर गुन निधि सुत होऊ।। करहु बहुत रघुनायक छोऊ॥
यदि मनुष्य पूर्ण श्रद्घा और विश्वास से इनका आश्रय ग्रहण कर लें तो फिर तुलसीदासजी की भांति उसे भी हनुमान और राम-दर्शन होने में देर नहीं लगती।
हनुमानजी के जीवित होने के प्रमाण समय-समय पर प्राप्त होते रहे हैं, जो इस बात को प्रमाणित करता है कि हनुमानजी आज भी जीवित हैं। 16वीं सदी के महान संत कवि तुलसीदासजी को हनुमान की कृपा से रामजी के दर्शन प्राप्त हुए। कथा है कि हनुमानजी ने तुलसीदासजी से कहा था कि राम और लक्ष्मण चित्रकूट नियमित आते रहते हैं। मैं वृक्ष पर तोता बनकर बैठा रहूंगा, जब राम और लक्ष्मण आएंगे मैं आपको संकेत दे दूंगा।
हनुमानजी की आज्ञा के अनुसार तुलसीदासजी चित्रकूट घाट पर बैठ गए और सभी आने- जाने वालों को चंदन लगाने लगे। राम और लक्ष्मण जब आए तो हनुमानजी गाने लगे 'चित्रकूट के घाट पै, भई संतन के भीर। तुलसीदास चंदन घिसै, तिलक देत रघुबीर।।' हनुमान के यह वचन सुनते ही तुलसीदास प्रभु राम और लक्ष्मण को निहारने लगे।' इस प्रकार तुलसीदासजी को रामजी के दर्शन हुए।
हनुमानजी के संबंध में यह प्रश्न प्राय: सर्वत्र उठता है कि 'क्या हनुमानजी बंदर थे? इसके लिए कुछ लोग रामायणादि ग्रंथों में लिखे हनुमानजी और उनके सजातीय बांधव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ 'वानर, कपि, शाखामृग, प्लवंगम' आदि विशेषण पढ़कर उनके बंदर प्रजाति का होने का उदाहरण देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उनकी पुच्छ, लांगूल, बाल्धी और लाम से लंका-दहन का प्रत्यक्ष चमत्कार इसका प्रमाण है यह भी कि उनकी सभी जगह सपुच्छ प्रतिमाएं देखकर उनके पशु या बंदर जैसा होना सिद्ध होता है।
कुछ लोग मानते हैं कि वे ऐसे नहीं थे। इस कपित्व-द्योतक अंश को वे विधर्मी प्रक्षिप्त मानते हैं।
वाल्मीकि रामायण ही राम, रावण और हनुमान के होने और उनके चरित्र का सही प्रमाण प्रस्तुत करती है, क्योंकि रामायण को राम के काल में ही रच गया था बाकी सभी रामायण या रामचरित मानस में कहीं-कहीं उनका चित्रण सच्चाई से भिन्न है।
वाल्मीकि रामायण अनुसार हनुमानजी का व्याकरण-बेत्तृत्व, शुद्घ-भाषण-कला-कुशलत्व, बुद्घिमता-वरिष्ठता एवं ज्ञानिनामग्रगण्यत्व सिद्घ होता है। ऐसा होना किसी साधारण वानर या मानव में नहीं हो सकता।
जैसे- जब भगवान राम को पहले-पहल हनुमान मिले तो उनकी बातचीत से प्रभावित होकर भगवान् ने एकांत में लक्ष्मण से कहा कि- कृत्स्नं व्याकरणं शास्त्रमनेन बहुधा श्रुतम्॥ बहु व्याहरताऽनेन न किञ्चिदपशब्दितम्।। अर्थात्- (हे लक्ष्मण!) मालूम पड़ता है कि इस व्यक्ति ने समस्त व्याकरण शास्त्र का खूब स्वाध्याय किया है तभी तो इस लंबी-चौड़ी बातचीत के दौरान में इसने एक भी अशुद्ध शब्द नहीं बोला।
क्या रामायण के इस प्रमाण से यह सिद्ध नहीं होता है कि कोई वानर कैसे शुद्ध उच्चारण कर सकता है और कैसे वह शांतचित्त रहकर बुद्धि का परिचय दे सकता है। रामायण में वाल्मीकिजी ने जहाँ उन्हें विशिष्ट पण्डित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है, वहीं उनको लोमश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है।
दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी। अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्ट हो गई, परंतु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है जिनकी पूछ प्राय: 6 इंच के लगभग अवशिष्ट रह गई है।
यह प्राय: सभी पुरातत्ववेत्ता अनुसंधायक एकमत से स्वीकार करते हैं कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।
हनुमानजी को धर्म की रक्षा के लिए अमरता का वरदान मिला। इस वरदान के कारण आज भी हनुमानजी जीवित हैं और वे भगवान के भक्तों तथा धर्म की रक्षा में लगे हुए हैं। कलयुग में राम का नाम लेने वाले और हनुमान की भक्ति करने वाले ही सुरक्षित रह सकते हैं।
वैचारिक स्तर पर धर्मयुद्ध चल रहा है और यह तब तक चलेगा, जब तक कि धरती पर सनातन धर्म की पुन: स्थापना नहीं हो जाती। सनातन हिन्दू धर्म के सभी दुश्मनों के लिए भविष्य सबसे खतरनाक आने वाला है। हनुमानजी अपार बलशाली और वीर हैं और उनका कोई सानी नहीं है।
धर्म की स्थापना और रक्षा का कार्य चार लोगों के हाथों में है। दुर्गा, भैरव, हनुमान और कृष्ण। उक्त चारों ही अपने-अपने स्तर पर कार्यरत हैं। जब कल्कि रूप में भगवान विष्णु अवतार लेंगे तब हनुमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, विश्वामित्र, विभीषण और राजा बलि सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाएंगे।
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