Saturday, 2 May 2015

हिन्दू धर्म की 15 कहानियां, जानना जरूरी - भाग 1


हिन्दू मानते हैं कि समय सीधा ही चलता है। सीधे चलने वाले समय में जीवन और घटनाओं का चक्र चलता रहता है। समय के साथ घटनाओं में दोहराव होता है फिर भी घटनाएं नई होती हैं। लेकिन समय की अवधारणा हिन्दू धर्म में अन्य धर्मों की अपेक्षा बहुत अलग है। प्राचीनकाल से ही हिन्दू मानते आए हैं कि हमारी धरती का समय अन्य ग्रहों और नक्षत्रों के समय से भिन्न है, जैसे 365 दिन में धरती का 1 वर्ष होता है तो धरती के मान से 365 दिन में देवताओं का 1 'दिव्य वर्ष' होता है। हिन्दू काल-अवधारणा सीधी होने के साथ चक्रीय भी है। चक्रीय इस मायने में कि दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है तो यह चक्रीय है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कल वाला दिन ही आज का दिन है और आज भी कल जैसी ही घटनाएं घटेंगी। राम तो कई हुए, लेकिन हर त्रेतायुग में अलग-अलग हुए और उनकी कहानी भी अलग-अलग है। पहले त्रेतायुग के राम का दशरथ नंदन राम से कोई लेना-देना नहीं है। यह तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव ही तय करते कि किस युग में कौन राम होगा और कौन रावण और कौन कृष्ण होगा और कौन कंस? ब्रह्मा, विष्णु और महेश के ऊपर जो ताकत है उसे कहते हैं... 'काल ब्रह्म'। यह काल ही तय करता है कि कौन ब्रह्मा होगा और कौन विष्णु? उसने कई विष्णु पैदा कर दिए हैं कई अन्य धरतियों पर। खैर...
उपरोक्त लिखने का आशय यह है कि हिन्दू काल निर्धारण अनुसार 4 युगों का मतलब 12,000 दिव्य वर्ष होता है। इस तरह अब तक 4-4 करने पर 71 युग होते हैं। 71 युगों का एक मन्वंतर होता है। इस तरह 14 मन्वंतर का 1 कल्प माना गया है। 1 कल्प अर्थात ब्रह्माजी के लोक का 1 दिन होता है।
विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। 1 मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष। ...फिलहाल 6 मन्वंतर बीत चुके हैं और यह 7वां मन्वंतर चल रहा है जिसका नाम वैवस्वत मनु का मन्वंतर कहा गया है। यदि हम कल्प की बात करें तो अब तक महत कल्प, हिरण्य गर्भ कल्प, ब्रह्म कल्प और पद्म कल्प बीत चुका है और यह 5वां कल्प वराह कल्प चल रहा है।
अब तक वराह कल्प के स्वयम्भुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से 5,631 वर्ष पूर्व हुआ था। 
हिन्दू धर्म के इतिहास को कई इतिहासकारों ने लिखा है, लेकिन आजकल नेट का युग है। यहां इतनी लंबी-चौड़ी बातें लिखने से शायद ही समझ में आए। मोटी-मोटी किताबें पढ़ने की किसे फुर्सत? हिन्दू धर्म के प्राचीन इतिहास को किसी मानव की उत्पत्ति से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, जैसा कि दूसरे धर्मों में आदम से इतिहास की शुरुआत होती है और फिर क्रमश: मूसा, ईसा और मोहम्मद तक समाप्त हो जाती है। जबकि हिन्दू धर्मानुसार मनुष्य पहली बार नहीं जन्मा तथा उसका अस्तित्व कई बार मिट गया और हर बार उसकी उत्पत्ति किसी एक माध्यम से नहीं हुई। कभी उसको रचा गया तो कभी वह क्रम विकास के माध्यम से जन्मा। इसीलिए हमने पुराणों में से कुछ ऐसी कहानियां छांटी हैं, जो आपको क्रमश: इतिहास की रोचक जानकारी देगी।



1. ब्रह्मा, विष्णु, महेश, स्वयम्भुव मनु का काल : हालांकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कथा को शिव के भक्तों ने शिव को आधार बनाकर लिखा तो विष्‍णु के भक्तों ने विष्णु को आधार बनाकर। कहा जाता है कि एक बार जब भगवान शिव से जब पूछा गया कि आपके पिता कौन तो उन्होंने ब्रह्मा का नाम लिया और फिर पूछा गया कि ब्रह्मा के पिता कौन तो उन्होंने विष्णु का नाम लिया और जब उनसे पूछा गया कि विष्णु के पिता कौन? तो उन्होंने कहा कि मैं स्वयं।
जब सब कुछ प्रलय के कारण नष्ट हो गया तो धरती लाखों वर्ष तक अंधकार में रही। फिर सूखी धरती पर जलावृष्टि हुई और यह धरती पूर्ण रूप से जल से भर गई। संपूर्ण धरती जलमग्न हो गई। जल में भगवान विष्णु की उत्पत्ति हुई। जब उन्होंने आंखें खोलीं तो नेत्रों से सूर्य की और हृदय से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। जल से विष्णु की उत्पत्ति होने के कारण उन्हें हिरण्याभ भी कहते हैं। हिरण्य अर्थात जल और नाभ अर्थात नाभि यानी जल की नाभि। इस नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई और कमल जब जल के ऊपर खिला तो उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई।
फिर उनके माथे से ही एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ, जो टूटकर जब बिखरा तो उसमें से महेश की उत्पत्ति हुई। दोनों ने पूछा- मैं कौन हूं। तब विष्णु ने उनको सृष्टि के विस्तार का आदेश दिया। इस काल में एक और जहां जल में एकइंद्रिय और एकरंगी जीवों की उत्पत्ति हुई वहीं असंख्य पौधों और लताओं की उत्पत्ति होती गई। इसी तरह मेरू पर्वत से जब कुछ जल हटा तो यही एकइंद्रिय जीव वहां फैलकर तरह-तरह के रूप धरने लगे। ये जीवन क्रम विकास के क्रम में शामिल हो गए। यह सब ब्रह्मा की घोर तपस्या और अथक प्रयास से संभव हुआ। 
तब ब्रह्मा ने एक ऐसे जीव की उत्पत्ति करने की सोची, जो अन्य जलचर, थलचर और नभचर जीवों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान हो अर्थात खुद ब्रह्मा की तरह हो। यह सोचकर उन्होंने पहले 4 सनतकुमारों को जन्म दिया, लेकिन वे कुछ नहीं कर पाए और वे चारों भी ब्रह्मा की तरह तपस्या में लीन हो गए। तब ब्रह्मा ने 10 मानस पुत्रों को उत्पन्न किया (वशिष्ठ, कृ‍तु, पुलह, पुलस्य, अंगिरा, अत्रि और मरीचि आदि) और उनसे कहा कि आप मानव जीवन की उत्पत्ति करें, उनको शिक्षा दें और परमेश्वर का मार्ग बताएं। बहुत काल तक जब ये ऋषि तपस्या में ही लीन रहे तो यह देखकर स्वयं ब्रह्मा ने मानव रूप में स्वयम्भुव मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को जन्म दिया। उन्होंने तब उन दोनों से मानव जाति के विस्तार का आदेश दिया और कहा कि आप सभी धर्मसम्मत वेदवाणी का ज्ञान दें।
वेद ईश्वर की वाणी है। इस वाणी को सर्वप्रथम 4 क्रमश: ऋषियों ने सुना- 1. अग्नि, 2. वायु, 3. अंगिरा और 4. आदित्य। परंपरागत रूप से इस ज्ञान को स्वयम्भुव मनु ने अपने कुल के लोगों को सुनाया, फिर स्वरोचिष, फिर औत्तमी, फिर तामस मनु, फिर रैवत और फिर चाक्षुष मनु ने इस ज्ञान को अपने कुल और समाज के लोगों को सुनाया। बाद में इस ज्ञान को वैवश्वत मनु ने अपने पुत्रों को दिया। इस तरह परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान श्रीकृष्ण तक पहुंचा।
हिन्दू धर्म की शुरुआत की कहानी में सबसे पहले ब्रह्मा और उनके पुत्रों की कहानी का अधिक महत्व है उसके बाद विष्णु और महेश के शिष्यों और भक्तों की कहानी का अधिक महत्व है। महेश ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की बेटी सती से विवाह किया और विष्णु ने ब्रह्मा के पुत्र भृगु की बेटी लक्ष्मी से विवाह किया। इस तरह ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने संपूर्ण धरती पर देव, दैत्य, दानव, राक्षस, मानव, किन्नर, वानर, नाग, मल्ल आदि हजारों तरह के जीवों की रचना की।
उल्लेखनीय है कि स्वयम्भुव मनु के कुल में भगवान ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव स्वयम्भुव मनु से 5वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयम्भुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। ऋषभदेव ने प्रजा को जीवन के निर्वाह हेतु असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, शिल्प आदि की शिक्षा दी। इनका नंदा व सुनंदा से विवाह हुआ। इनके भरत व बाहुबली आदि 100 पुत्र हुए। भरत के नाम पर ही इस अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष रखा गया।



2. ऋषि कश्यप, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष : जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि संपूर्ण धरती पर पहले जल ही था। जल जब हटा तो धरती का सर्वप्रथम हिस्सा जो प्रकट हुआ, वह मेरू पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। यह पर्वत हिमालय के बीचोबीच का हिस्सा है। यहीं पर कैलाश पर्वत है। कश्मीर को कश्यप ऋषि के कुल के लोगों ने ही बसाया था।
ऋषि कश्यप एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने बहुत-सी स्त्रियों से विवाह कर अपने कुल का विस्तार किया था। आदिम काल में जातियों की विविधता आज की अपेक्षा कई गुना अधिक थी। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीचि के विद्वान पुत्र थे। सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे परब्रह्म परमात्मा के ध्यान में लीन रहते थे। समस्त देव, दानव एवं मानव ऋषि कश्यप की आज्ञा का पालन करते थे। कश्यप ने बहुत से स्मृति-ग्रंथों की रचना की थी।

पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना और विकास के काल में धरती पर सर्वप्रथम भगवान ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के निवेदन पर दक्ष प्रजापति ने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से 66 कन्याएं पैदा कीं। इन कन्याओं में से 13 कन्याएं ऋषि कश्यप की पत्नियां बनीं। मुख्यत: इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। उल्लेखनीय है कि ब्रह्मा के पुत्रों के कुल के लोगों ने ही आपस में रोटी-बेटी का संबंध रखकर कुल का विस्तार किया। 
कश्यप की पत्न‍ियां : इस प्रकार ऋषि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं। इन पत्नियों की कहानी भी बड़ी रोचक है। हिन्दुओं को इनकी कहानियां पढ़ना चाहिए।
1. अदिति : पुराणों के अनुसार कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से 12 आदित्यों को जन्म दिया जिनमें भगवान नारायण का वामन अवतार भी शामिल था। ये 12 पुत्र इस प्रकार थे- विवस्वान (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा (विश्‍वकर्मा), सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। माना जाता है कि ऋषि कश्यप के पुत्र विवस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। 
नोट : *महाराज वैवस्वत मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनके ही कुल में आगे चलकर राम हुए। यह सूर्यवंशियों का कुल था, जबकि चंद्रवंशियों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से हुई थी। *ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक 6 महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए। *इधर, सूर्यवंश- ब्रह्मा से मरीचि, मरीचि से कश्यप और कश्यप से विवस्वान (सूर्य), विवास्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।
2. दिति : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुंदण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद।
देवासुर संग्राम : उक्त दोनों के पुत्रों को सुर और असुर कहा जाता है। दोनों के ही पुत्रों में धरती पर स्वर्ग के अधिकार को लेकर घनघोर युद्ध होता था। माना जाता है कि देवासुर संग्राम लगभग 12 बार हुआ। इन दोनों के पुत्रों में अदिति के पुत्र इंद्र और विवस्वान की प्रतिद्वंद्विता दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष से चलती रहती थी। अदिति के पुत्र वरुण देव और असुर दोनों को ही प्रिय थे इसलिए उनको असुरों का समर्थक भी माना गया है। वरुण देव जल के देवता हैं।

हिरण्याक्ष : हिरण्याक्ष भयंकर दैत्य था। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार चाहता था। हिरण्याक्ष का दक्षिण भारत पर राज था। ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान वराहरूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान ने जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।
आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। उन्होंने अपनी सेना को लेकर हिरण्याक्ष के क्षे‍त्र पर चढ़ाई कर दी और विंध्यगिरि के पाद प्रसूत जल समुद्र को पार कर उन्होंने हिरण्याक्ष के नगर को घेर लिया। संगमनेर में महासंग्राम हुआ और अंतत: हिरण्याक्ष का अंत हुआ। आज भी दक्षिण भारत में हिंगोली, हिंगनघाट, हींगना नदी तथा हिरण्याक्षगण हैंगड़े नामों से कई स्थान हैं। उल्लेखनीय है कि सबसे पहले भगवान विष्णु ने नील वराह का अवतार लिया फिर आदि वराह बनकर हिरण्याक्ष का वध किया इसके बाद श्‍वेत वराह का अवतार नृसिंह अवतार के बाद लिया।

हिरण्यकश्यप : हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। हिरण्यकश्यप को यह अच्छा नहीं लगता था। हिरण्याक्ष की तरह वह चाहता था कि संपूर्ण धरती के देव, दानव और मानव मुझे ईश्‍वर मानें। हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु को नृसिंह का अवतार लेना पड़ा। भक्त प्रह्लाद की कहानी से सभी अवगत हैं। होलिका दहन और नृसिंह जयंती पर्व इस घटना की याद में मनाया जाता है।

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