पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरु हुए। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।
कुरु के वंश में आगे चलकर राजा प्रतीप हुए जिनके दूसरे पुत्र थे शांतनु। शांतनु का बड़ा भाई बचपन में ही शांत हो गया था। शांतनु के गंगा से देवव्रत (भीष्म) हुए। भीष्म ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए यह वंश आगे नहीं चल सका। भीष्म अंतिम कौरव थे।
यह वह काल था जबकि देवी और देवता धरती पर विचरण किया करते थे। किसी खास मंत्र द्वारा उनका आह्वान करने पर वे प्रकट हो जाया करते थे। देवताओं में इंद्र, वरुण, 2 अश्विनकुमार, 8 वसुगण, 12 आदित्यगण, 11 रुद्र, सूर्य, मित्र, पूषन, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, सती, सरस्वती, लक्ष्मी, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, 49 मरुद्गण, पर्जन्य, वायु, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, यम, पितृ (अर्यमा), मृत्यु, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, कश्यप, विश्वकर्मा, गायत्री, सावित्री, आत्मा, बृहस्पति, शुक्राचार्य आदि। इन्हीं देवताओं के कुल में से एक मां गंगा भी हैं।
गंगा ने क्यों किया शांतनु से विवाह? पुत्र की कामना से शांतनु के पिता महाराजा प्रतीप ने गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके तप, रूप और सौन्दर्य पर मोहित होकर गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर आकर बैठ गईं और कहने लगीं, 'राजन! मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूं।'
इस पर राजा प्रतीप ने कहा, 'गंगे! तुम मेरी दाहिनी जंघा पर बैठी हो, जबकि पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जंघा तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूं।' यह सुनकर गंगा वहां से चली गईं।'
जब महाराज प्रतीप को पुत्र की प्राप्ति हुई तो उन्होंने उसका नाम शांतनु रखा और इसी शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया।
शांतनु ने अपने पिता प्रतीप की आज्ञा से गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिए निवेदन किया था। गंगा तो शांतनु के पिता पर आसक्त हुई थी। तब गंगा ने कहा, 'राजन्! मैं आपके साथ विवाह करने के लिए तैयार हूं लेकिन आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।' शांतनु ने गंगा को वचन देकर विवाह कर लिया।
गंगा के गर्भ से महाराज शांतनु को 8 पुत्र हुए जिनमें से 7 को गंगा ने गंगा नदी में ले जाकर बहा दिया। वचन के बंधे होने के कारण शांतनु कुछ नहीं बोल पाए।
जब गंगा का 8वां पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिए ले जाने लगी तो राजा शांतनु से रहा नहीं गया और उन्होंने इस कार्य को करने से गंगा को रोक दिया। गंगा ने कहा, 'राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिए अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।' इतना कहकर गंगा वहां से अंतर्ध्यान हो गई।
महाराजा शांतनु ने अपने उस पुत्र को पाला-पोसा और उसका नाम देवव्रत रखा। देवव्रत के किशोरावस्था में होने पर उसे हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया। यही देवव्रत आगे चलकर भीष्म कहलाए।
एक बार 'द्यु' नामक वसु ने वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यु से कहा कि ऐसा काम तो मनुष्य करते हैं इसलिए तुम आठों वसु मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर वसुओं ने घबराकर वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे शाप से छुटकारा पा जाएंगे, लेकिन इस 'द्यु' को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य बनकर पीड़ा भोगना होगी।
यह सुनकर वसुओं ने गंगाजी के पास जाकर उन्हें वशिष्ठजी के शाप को विस्तार से बताया और यह प्रार्थना की कि 'आप मृत्युलोक में अवतार लेकर हमें गर्भ में धारण करें और ज्यों ही हम जन्म लें, हमें पानी में डुबो दें। इस तरह हम जल्दी से सभी मुक्त हो जाएंगे।' गंगा माता ने स्वीकार कर लिया और वे युक्तिपूर्वक शांतनु राजा की पत्नी बन गईं और शांतनु से वचन भी ले लिया। शांतनु से गंगा के गर्भ में पहले जो 7 पुत्र पैदा हुए थे उन्हें उत्पन्न होते ही गंगाजी ने पानी में डुबो दिया जिससे 7 वसु तो मुक्त हो गए लेकिन 8वें में शांतनु ने गंगा को रोककर इसका कारण जानना चाहा।
गंगाजी ने राजा की बात मानकर वसुओं को वशिष्ठ के शाप का सब हाल कह सुनाया। राजा ने उस 8वें पुत्र को डुबोने नहीं दिया और इस वचनभंगता के काण गंगा 8वें पुत्र को सौंपकर अंतर्ध्यान हो गईं। यहीं बालक 'द्यु' नामक वसु था।
एक दिन देवव्रत के पिता शांतनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुए एक सुन्दर कन्या नजर आई। शांतनु उस कन्या पर मुग्ध हो गए। महाराजा ने उसके पास जाकर उससे पूछा, 'हे देवी तुम कौन हो?' उसने कहा, 'महाराजा मेरा नाम सत्यवती है और में निषाद कन्या हूं।' (उस काल में निषाद नाम की एक जाति होती थी)
महाराज उसके रूप-यौवन पर रीझकर उसके पिता के पास पहुंचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धीवर ने कहा, 'राजन्! मुझे अपनी कन्या का विवाह आपके साथ करने में कोई आपत्ति नहीं है, किंतु मैं चाहता हूं कि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाएं, तो ही यह विवाह संभव हो पाएगा।' निषाद के इन वचनों को सुनकर महाराज शांतनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आए और मन ही मन इस दुख से घुटने लगे। सत्यवती के वियोग में महाराज व्याकुल रहने लगे और उनका शरीर भी दुर्बल होने लगा।
महाराज की इस दशा को देखकर देवव्रत को चिंता हुई। जब उन्हें मंत्रियों द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण पता चला तो वे निषाद के घर जा पहुंचे और उन्होंने निषाद से कहा, 'हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शांतनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूं कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालांतर में मेरी कोई संतान आपकी पुत्री के संतान का अधिकार छीन न पाए इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं आजन्म अविवाहित रहूंगा।'
उनकी इस प्रतिज्ञा को सुनकर निषाद ने हाथ जोड़कर कहा, 'हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।' इतना कहकर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मंत्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।
देवव्रत जब निषाद कन्या सत्यवती को लाकर अपने पिता शांतनु को सौंपते हैं तो शांतनु की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। शांतनु प्रसन्न होकर देवव्रत से कहते हैं, 'हे पुत्र! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी कठिन प्रतिज्ञा की है, जो न आज तक किसी ने की है और न भविष्य में कोई करेगा। तेरी इस पितृभक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वरदान देता हूं कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू 'भीष्म' कहलाएगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।'देवव्रत जब निषाद कन्या सत्यवती को लाकर अपने पिता शांतनु को सौंपते हैं तो शांतनु की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। शांतनु प्रसन्न होकर देवव्रत से कहते हैं, 'हे पुत्र! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी कठिन प्रतिज्ञा की है, जो न आज तक किसी ने की है और न भविष्य में कोई करेगा। तेरी इस पितृभक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वरदान देता हूं कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू 'भीष्म' कहलाएगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।'
सत्यवती के गर्भ से महाराज शांतनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के 2 पुत्र हुए। शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाए गए, किंतु गंधर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई, तब विचित्रवीर्य बालक ही थे। फिर भी भीष्म विचित्रवीर्य को सिंहासन पर बैठाकर खुद राजकार्य देखने लगे। विचित्रवीर्य के युवा होने पर भीष्म ने बलपूर्वक काशीराज की 3 पुत्रियों का हरण कर लिया और वे उसका विवाह विचित्रवीर्य से करना चाहते थे, क्योंकि भीष्म चाहते थे कि किसी भी तरह अपने पिता शांतनु का कुल बढ़े।
लेकिन बाद में बड़ी राजकुमारी अम्बा को छोड़ दिया गया, क्योंकि वह शाल्वराज को चाहती थी। अन्य दोनों (अम्बालिका और अम्बिका) का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। लेकिन विचित्रवीर्य को दोनों से कोई संतानें नहीं हुईं और वह भी चल बसा। एक बार फिर गद्दी खाली हो गई। सत्यवती-शांतनु का वंश तो डूब गया और गंगा-शांतनु के वंश ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली थी। अब हस्तिनापुर की राजगद्दी फिर से खाली हो गई थी।
परशुराम से युद्ध : विचित्रवीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिए भीष्म ने काशीराज की 3 कन्याओं का बलपूर्वक हरण किया था जिसमें से एक को शाल्वराज पर अनुरक्त होने के कारण छोड़ दिया था।
लेकिन शाल्वराज के पास जाने के बाद अम्बा को शाल्वराज ने स्वीकार करने से मना कर दिया। अम्बा के लिए यह दुखदायी स्थिति हो चली थी। अम्बा ने अपनी इस दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुरामजी से की।
परशुरामजी ने अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठनी। परशुरामजी ने भीष्म से कहा कि 'तुमने अम्बा का बलपूर्वक अपहरण किया है, अत: अब तुम्हें इससे विवाह करना होगा अन्यथा मुझसे युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।'
भीष्म और परशुरामजी का 21 दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ। अंत में ऋषियों ने परशुराम को सारी व्यथा-कथा सुनाही और भीष्म की स्थिति से भी उनको अवगत कराया तब कहीं परशुरामजी ने ही युद्धविराम किया। इस तरह भीष्म द्वारा लिए गए ब्रह्मचर्य के प्रण पर वे अटल रहे।
सत्यवती के शांतनु से उत्पन्न दोनों पुत्र (चित्रांगद और विचित्रवीर्य) की मृत्यु हो जाने के बाद सत्यवती भीष्म से बार-बार अनुरोध करती हैं कि पिता के वंश को चलाने के लिए अब तुम्हें विवाह कर पुत्र उत्पन्न करना चाहिए लेकिन भीष्म अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को तैयार नहीं होते हैं। ऐसे में सत्यवती विचित्रवीर्य की विधवा अम्बालिका और अम्बिका को 'नियोग प्रथा' द्वारा संतान उत्पन्न करने का सोचती है। भीष्म की अनुमति लेकर सत्यवती अपने पुत्र वेदव्यास द्वारा अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से यथाक्रम धृतराष्ट्र और पाण्डु नाम के पुत्रों को उत्पन्न करवाती है।
शांतनु से विवाह करने के पूर्व सत्यवती ने अपनी कुंवारी अवस्था में ऋषि पराशर के साथ सहवास कर लिया था जिससे उनको वेदव्यास नामक एक पुत्र का जन्म हुआ था। वे अपने इसी पुत्र से अम्बिका और अम्बालिका के साथ संयोग करने का कहती है। इस तरह यह कुल ऋषि कुल कहलाता है।
भीष्म पितामह ने विवाह नहीं करके ब्रह्मचर्य का पालन किया था। उन्होंने अविवाहित रहकर भी इस व्रत का कठोरता से पालन किया था। इसके लिए वे योगारूढ़ होकर ब्रह्म का ध्यान किया करते थे। उनके समक्ष श्रीकृष्ण बच्चे ही थे लेकिन उन्होंने कृष्ण को भगवान रूप में पहचान लिया था। वे सदा कृष्णभक्ति में लीन रहते थे।
महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने निहत्थे रहकर अर्जुन का रथ हांकने की प्रतिज्ञा की थी, लेकिन भीष्म ने उनसे शस्त्र ग्रहण करने का वचन ले लिया था। कृष्ण के लिए यह धर्म-संकट की स्थिति बन गई थी। अंत में भक्त की लाज रखने को जब श्रीकृष्ण रथ का पहिया लेकर दौड़ पड़े, तब भीष्म ने हथियार रख दिए और श्रीकृष्ण के हाथों मारे जाने में ही अपनी मुक्ति समझने लगे। कृष्ण ने ऐसा करके अपने हथियार न धारण करने की प्रतिज्ञा भी पूरी की और भीष्म के कहने पर हथियार धारण करने का वचन भी पूरा कर दिया।
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से सेनापति थे। कुरुक्षेत्र का युद्ध आरंभ होने पर प्रधान सेनापति की हैसियत से भीष्म ने 10 दिन तक घोर युद्ध किया था।
9वें दिन भयंकर युद्ध हुआ जिसके चलते भीष्म ने बहादुरी दिखाते हुए अर्जुन को घायल कर उनके रथ को जर्जर कर दिया। युद्ध में आखिरकार भीष्म के भीषण संहार को रोकने के लिए कृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ती है। उनके जर्जर रथ को देखकर श्रीकृष्ण रथ का पहिया लेकर भीष्म पर झपटते हैं, लेकिन वे शांत हो जाते हैं, परंतु इस दिन भीष्म पांडवों की सेना का अधिकांश भाग समाप्त कर देते हैं।
10वें दिन भीष्म द्वारा बड़े पैमाने पर पांडवों की सेना को मार देने से घबराए पांडव पक्ष में भय फैल जाता है, तब श्रीकृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।
दसवें ही ही दिन इच्छामृत्यु प्राप्त भीष्म द्वारा अपनी मृत्यु का रहस्य बता देने के बाद इसके बाद भीष्म पांचाल तथा मत्स्य सेना का भयंकर संहार कर देते हैं। फिर पांडव पक्ष युद्ध क्षेत्र में भीष्म के सामने शिखंडी को युद्ध करने के लिए लगा देते हैं। युद्ध क्षेत्र में शिखंडी को सामने डटा देखकर भीष्म अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग देत हैं। इस मौके का फायदा उठाकर कृष्ण के इशार पर बड़े ही बेमन से अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को छेद दिया। भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट जाते हैं।
दरअसल, भीष्म ने अपनी मृत्यु का रहस्य यह बताया था कि वे किसी नपुंसक व्यक्ति के समक्ष हथियार नहीं उठाएंगे। इसी दौरान उन्हें मारा जा सकता है। इस नीति के तरह युद्ध में भीष्म के सामने शिखंडी को उतारा जाता है।
भीष्म को अर्जुन तीरों से छेद देते हैं। वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं। जब भीष्म की गर्दन लटक जाती है तब वे अपने बंधु-बांधवों और वीर सैनिकों से क्या कहते हैं?
भीष्म के शरशय्या पर लेटने की खबर फैलने पर कौरवों की सेना में हाहाकार मच जाता है। दोनों दलों के सैनिक और सेनापति युद्ध करना छोड़कर भीष्म के पास एकत्र हो जाते हैं। दोनों दलों के राजाओं से भीष्म कहते हैं, राजन्यगण। मेरा सिर नीचे लटक रहा है। मुझे उपयुक्त तकिया चाहिए। उनके एक आदेश पर तमाम राजा और योद्धा मूल्यवान और तरह-तरह के तकिए ले आते हैं।
किंतु भीष्म उनमें से एक को भी न लेकर मुस्कुराकर कहते हैं कि ये तकिए इस वीर शय्या के काम में आने योग्य नहीं हैं राजन। फिर वे अर्जुन की ओर देखकर कहते हैं, 'बेटा, तुम तो क्षत्रिय धर्म के विद्वान हो। क्या तुम मुझे उपयुक्त तकिया दे सकते हो?' आज्ञा पाते ही अर्जुन ने आंखों में आंसू लिए उनको अभिवादन कर भीष्म को बड़ी तेजी से ऐसे 3 बाण मारे, जो उनके ललाट को छेदते हुए पृथ्वी में जा लगे। बस, इस तरह सिर को सिरहाना मिल जाता है। इन बाणों का आधार मिल जाने से सिर के लटकते रहने की पीड़ा जाती रही। इतना सब कुछ होने के बावजूद भीष्म क्यों नहीं त्यागते हैं प्राण?
सूर्य का उत्तरायण होना : लेकिन शरशय्या पर लेटने के बाद भी भीष्म प्राण क्यों नहीं त्यागते हैं, जबकि उनका पूरा शरीर तीर से छलनी हो जाता है फिर भी वे इच्छामृत्यु के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं।
भीष्म यह भलीभांति जानते थे कि सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने पर आत्मा को सद्गति मिलती है और वे पुन: अपने लोक जाकर मुक्त हो जाएंगे इसीलिए वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हैं।
भीष्म ने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण होने पर ही शरीर छोड़ेंगे, क्योंकि उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छामृत्यु का वर प्राप्त है और वे तब तक शरीर नहीं छोड़ सकते जब तक कि वे चाहें, लेकिन 10वें दिन का सूर्य डूब चुका था।
भीष्म को ठीक करने के लिए शल्य चिकित्सक लाए जाते हैं, लेकिन वे उनको लौटा देते हैं और कहते हैं कि अब तो मेरा अंतिम समय आ गया है। यह सब व्यर्थ है। शरशय्या ही मेरी चिता है। अब मैं तो बस सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहा हूं।
पितामह की ये बातें सुनकर राजागण और उनके सभी बंधु-बांधव उनको प्रणाम और प्रदक्षिणा कर-करके अपनी-अपनी छावनियों में लौट जाते हैं। अगले दिन सुबह होने पर फिर से वे सभी भीष्म के पास लौटते हैं। सभी कन्याएं, स्त्रियां और उनके कुल के योद्धा पितामह के पास चुपचाप खड़े हो जाते हैं।
पितामह ने पीने के लिए राजाओं से ठंडा पानी मांगा। सभी उनके लिए पानी ले आए, लेकिन उन्होंने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन समझ गया और उसने अपने गांडीव पर तीर चढ़ाया और पर्जन्यास्त्र का प्रयोग कर वे धरती में छोड़ देते हैं। धरती से अमृततुल्य, सुगंधित, बढ़िया जल की धारा निकलने लगती है। उस पानी को पीकर भीष्म तृप्त हो जाते हैं।
फिर भीष्म दुर्योधन को समझाते हैं कि युद्ध छोड़कर वंश की रक्षा करो। उन्होंने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की और दुर्योधन को बार-बार समझाया कि हमारी यह गति देखकर संभल जाओ, लेकिन दुर्योधन उनकी एक भी नहीं मानता है और फिर से युद्ध शुरू हो जाता है।
अगले दिन फिर से सभी उनके पास इकट्ठे होते हैं। वे नए सेनापति कर्ण को समझाते हैं। वे दोनों पक्षों में अपने अंतिम वक्त में भी संधि कराने की चेष्टा करते हैं। भीष्म के शरशय्या पर लेट जाने के बाद युद्ध और 8 दिन चला।
भीष्म यद्यपि शरशय्या पर पड़े हुए थे फिर भी उन्होंने श्रीकृष्ण के कहने से युद्ध के बाद युधिष्ठिर का शोक दूर करने के लिए राजधर्म, मोक्षधर्म और आपद्धर्म आदि का मूल्यवान उपदेश बड़े विस्तार के साथ दिया। इस उपदेश को सुनने से युधिष्ठिर के मन से ग्लानि और पश्चाताप दूर हो जाता है।
बाद में सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुंचते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूं। इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगकर शरीर त्याग दिया।
सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया।
भीष्म सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे मनुष्य रूप में देवता वसु थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य का कड़ा पालन करके योग विद्या द्वारा अपने शरीर को पुष्य कर लिया था। दूसरा उनको इच्छामृत्यु का वरदान भी प्राप्त था।
इस युद्ध के समय अर्जुन 55 वर्ष, कृष्ण 83 वर्ष और भीष्म 150 वर्ष के थे। उस काल में 200 वर्ष की उम्र होना सामान्य बात थी। बौद्धों के काल तक भी भारतीयों की सामान्य उम्र 150 वर्ष हुआ करती थी। इसमें शुद्ध वायु, वातावरण और योग-ध्यान का बड़ा योगदान था। भीष्म जब युवा थे तब कृष्ण और अर्जुन हुए भी नहीं थे।
माना जाता है कि भीष्म ही युद्ध में सबसे अधिक उम्र के थे। उन्हें राजनीति का ज्यादा अनुभव होने के कारण वेदव्यास ने संपूर्ण महाभारत में भीष्म को राजनीति का केंद्र बनाकर राजनीति के बारे में उन्होंने जो भी कहा, उसका प्राथमिकता से उल्लेख किया।
दोस्तों आपको ये ब्लॉग कैसा लगता है। कमेंट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजियेगा। जिससे मुझे प्रोत्साहन मिलता रहे ।
Its a vary important topic for today generation. Whose learn cultures & leaving life style. Its a vary very most important to keep up dates in present & next generation. Thank you.
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