Sunday, 10 May 2015

क्या सचमुच भारत में बहती थी सरस्वती नदी?

सरस्वती नदी का नाम तो सभी ने सुना लेकिन उसे किसी ने देखा नहीं। माना जाता है कि प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता है इसीलिए उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। लेकिन यह शोध का विषय है कि क्या सचमुच सरस्वती कभी प्रयाग पहुंचकर गंगा या यमुना में मिली? जब नहीं मिली तो क्यों कहा जाता है त्रिवेणी संगम। आओ जानते हैं सरस्वती नदी की सच्चाई I

पांच सवाल हैं:-
1. क्या कभी सरस्वती नदी का अस्ति‍त्व था?
2. था तो क्या है इसका वैज्ञानिक आधार?
3. यदि सरस्वती नदी थी तो वह क्यों लुप्त हो गई?
4. क्या सरस्वती नदी कभी गंगा से मिली?
5. यदि सरस्वती नदी थी तो क्या था उसका इतिहास?

अधिकतर इतिहासकार भारत के इतिहास की पुख्ता शुरुआत सिंधु नदी की घाटी की मोहनजोदड़ो और हड़प्पाकालीन सभ्यता से मानते थे लेकिन अब जबसे सरस्वती नदी की खोज हुई है, भारत का इतिहास बदलने लगा है। अब माना जाता है कि यह सिंधु घाटी की सभ्यता से भी कई हजार वर्ष पुरानी है।

गंगा की नदियां : माना जाता है कि सुमेरू के ऊपर अंतरिक्ष में ब्रह्माजी का लोक है जिसके आस-पास इंद्रादि लोकपालों की 8 नगरियां बसी हैं। गंगा नदी चंद्रमंडल को चारों ओर से आप्लावित करती हुई ब्रह्मलोक (शायद हिमवान पर्वत) में गिरती है और सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नाम से 4 भागों में विभाजित हो जाती है।

सीता पूर्व की ओर आकाश मार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वत होती हुई अंत में पूर्व स्थित भद्राश्ववर्ष (चीन की ओर) को पार करके समुद्र में मिल जाती है। अलकनंदा दक्षिण दिशा से भारतवर्ष में आती है और 7 भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है। चक्षु पश्चिम दिशा के समस्त पर्वतों को पार करती हुई केतुमाल नामक वर्ष में बहते हुए सागर में मिल जाती है। भद्रा उत्तर के पर्वतों को पार करते हुए उत्तरकुरुवर्ष (रूस) होते हुए उत्तरी सागर में जा मिलती है।

धर्म और संस्कृत ग्रंथों के अनुसार सरस्वती का अस्तित्व था। ऋग्वेद में सरस्वती नदी का उल्लेख मिलता है और इसकी महत्ता को दर्शाया गया है। संस्कृत की कई पुस्तकों में भी इसका उल्लेख है। सरस्वती को भी सिन्धु नदी के समान दर्जा प्राप्त है।

ऋग्वेद की ऋचाओं में कहा गया है कि यह एक ऐसी नदी है जिसने एक सभ्यता को जन्म दिया। इसे भाषा, ज्ञान, कलाओं और विज्ञान की देवी भी माना जाता है। ऋग्वेद की ऋचाओं को इस नदी के किनारे बैठकर ही लिखा गया था, लेकिन इस नदी के अस्तित्व को लेकर बहुत वाद-विवाद हुआ है। 

ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को 'यमुना के पूर्व' और 'सतलुज के पश्चिम' में बहती हुई बताया गया है। ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ बताया गया है। महाभारत में सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन है। इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय है। 

महाभारत में भी सरस्वती का उल्लेख है और कहा गया है कि यह गायब हो गई नदी है। जिस स्थान पर यह नदी गायब हुई, उस स्थान को विनाशना अथवा उपमज्जना का नाम दिया गया। इस बात का भी उल्लेख है कि बलराम ने द्वारका से मथुरा तक की यात्रा सरस्वती नदी से की थी और लड़ाई के बाद यादवों के पार्थिव अवशेषों को इसमें बहाया गया था यानी तब इस नदी से यात्राएं भी की जा सकती थीं।

एक फ्रेंच प्रोटो-हिस्टोरियन माइकल डैनिनो ने नदी की उत्पत्ति और इसके लुप्त होने के संभावित कारणों की खोज की है। वे कहते हैं कि ऋग्वेद के मंडल 7वें के अनुसार एक समय पर सरस्वती बहुत बड़ी नदी थी, जो कि पहाड़ों से बहकर नीचे आती थी। अपने शोध 'द लॉस्ट रिवर' में डैनिनो कहते हैं कि उन्हें बरसाती नदी घग्घर नदी का पता चला। कई स्थानों पर यह एक बहुत छोटी-सी धारा है लेकिन जब मानसून का मौसम आता है, तो इसके किनारे 3 से 10 किलोमीटर तक चौड़े हो जाते हैं। इसके बारे में माना जाता है कि यह कभी एक बहुत बड़ी नदी रही होगी। यह भारत-तिब्बत की पहाड़ी सीमा से निकली है।

उन्होंने बहुत से स्रोतों से जानकारी हासिल की और नदी के मूल मार्ग का पता लगाया। ऋग्वेद में भौगोलिक क्रम के अनुसार यह नदी यमुना और सतलुज के बीच रही है और यह पूर्व से पश्चिम की तरह बहती रही है। नदी का तल पूर्व हड़प्पाकालीन था और यह 4 हजार ईसा पूर्व के मध्य में सूखने लगी थी। अन्य बहुत से बड़े पैमाने पर भौगोलिक परिवर्तन हुए और 2 हजार वर्ष पहले होने वाले इन परिवर्तनों के चलते उत्तर-पश्चिम की ओर बहने वाली ‍नदियों में से एक नदी गायब हो गई और यह नदी सरस्वती थी।

डैनिनो का कहना है कि करीब 5 हजार वर्ष पहले सरस्वती के बहाव से यमुना और सतलुज का पानी मिलता था। यह हिमालय ग्लेशियर से बहने वाली ‍नदियां हैं। इसके जिस अनुमानित मार्ग का पता लगाया गया है, उसके अनुसार सरस्वती का पथ पश्चिम गढ़वाल के बंदरपंच गिरि पिंड से संभवत: निकला होगा। यमुना भी इसके साथ-साथ बहा करती थी। कुछ दूर तक दोनों नदियां आसपास बहती थीं और बाद में मिल गई होंगी। यहां से यह वैदिक सरस्वती के नाम से दक्षिण की ओर आगे बढ़ी और जब यह नदी पंजाब और हरियाणा से निकली तब बरसाती नदियों, नालों और घग्घर इस नदी में मिल गई होंगी।

पटियाला से करीब 25 किमी दूर दक्षिण में सतलुज (जिसे संस्कृत में शतार्दू कहा जाता है) एक उपधारा के तौर पर सरस्वती में मिली। घग्घर के तौर पर आगे बढ़ती हुई यह राजस्थान और बहावलपुर में हाकरा के तौर आगे बढ़ी और सिंध प्रांत के नारा में होते हुए कच्छ के रण में विलीन हो गई। इस क्षेत्र में यह सिंधु नदी के समानांतर बहती थी। 

इस क्षेत्र में नदी के होने के कुछ और प्रमाण हैं। इसरो के वैज्ञानिक एके गुप्ता का कहना है कि थार के रेगिस्तान में पानी का कोई स्रोत नहीं है लेकिन यहां कुछ स्थानों पर ताजे पानी के स्रोत मिले हैं। जैसलमेर जिले में जहां बहुत कम बरसात होती है (जो कि 150 मिमी से भी कम है), यहां 50-60 मीटर पर भूजल मौजूद है। इस इलाके में कुएं सालभर नहीं सूखते हैं। इस पानी के नमूनों में ट्राइटियम की मात्रा नगण्य है जिसका मतलब है कि यहां आधुनिक तरीके से रिचार्ज नहीं किया गया है। स्वतंत्र तौर पर आइसोटोप विश्लेषण से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि रेत के टीलों के नीचे ताजा पानी जमा है और रेडियो कार्बन डाटा इस बात का संकेत देते हैं कि यहां कुछेक हजार वर्ष पुराना भूजल मौजूद है। आश्चर्य की बात नहीं है कि ताजे पानी के ये भंडार सूखी तल वाली सरस्वती के ऊपर हो सकते हैं।

सेटेलाइट चित्र : यह 6 नदियों की माता सप्तमी नदी रही है। यह 'स्वयं पायसा' (अपने ही जल से भरपूर) औरौ विशाल रही है। यह आदि मानव के नेत्रोन्मीलन से पूर्व काल में न जाने कब से बहती रही थी। एक अमेरिकन उपग्रह ने भूमि के अंदर दबी इस नदी के चित्र खींचकर पृथ्वी पर भेजे। अहमदाबाद के रिसर्च सेंटर ने उन चित्रों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला की शिमला के निकट शिवालिक पहाड़ों से कच्छ की खाड़ी तक भूमि के अंदर सूखी किसी नदी का तल है। जिसकी चौड़ाई कहीं कहीं 6 मिटर है।

उनका यह भी कहना है कि किसी समय सतलुज और यमुना नदी इसी नदी में मिलती थी। सेटेलाइट द्वारा भेजे गए चित्रों से पूर्व भी बहुत भूगर्भ खोजकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं। राजस्थान के एक अधिकारी एन.एन गोडबोले ने इस नदी के क्षेत्र में विविध कुओं के जल का रासायनिक परीक्षण करने पर पाया था कि सभी के जल में रसायन एक जैसा ही है। जबकि इस नदी के के क्षेत्र के कुओं से कुछ फलांग दूर स्थित कुओं के जलों का रासायनिक विश्‍लेषण दूसरे प्रकार का निकला। केन्द्रीय जल बोर्ड के वैज्ञानिकों को हरियाणश और पंजाब के साथ साथ राजस्थान के जैसलमेर जिले में सरस्वती नदी की मौजूदगी के ठोस प्रमाण मिले हैं। 

अगर सतलुज और यमुना के प्रवाह में आप सरस्वती का भी प्रवाह जोड़ देंगे तो आपको इसका अंदाजा होगा कि इस नदी की क्या ताकत रही होगी। यह कारोबार और व्यापार का सबसे अच्छा रास्ता रहा होगा और इसके उर्वरक डेल्टा (नदी से बने तिकोने उपजाऊ क्षेत्र) और बेसिन (नदी के आसपास की भूमि) के आसपास रिहायशी बस्तियां भी रही होंगी। लेकिन प्राचीन समय में कुछ बड़े भूकम्पों के कारण उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को पूरी तरह से बदलकर रख दिया गया। ये भूकम्प इतने शक्तिशाली थे कि सरस्वती और इसकी उपधाराओं के पुराने रास्ते ही बदल गए। इसका परिणाम यह हुआ कि सतलुज ने रास्ता बदला और यह पश्चिम में सिंधु नदी से जा मिली और यमुना नदी पूर्व की ओर गंगा के पास आ गई। 

ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी की संरचना आंतरिकी में हुए बदलाव के चलते सरस्वती भूमिगत हो गई और यह बात नदी के प्रवाह को लेकर आम धारणा के काफी करीब है। सरस्वती-सिंधु के इलाके में बड़े पैमाने पर ग्राउंड फॉल्ट्‍स (जमीन पर पृथ्वी के निर्माण में होने वाले अवरोधों) को सैटेलाइट तस्वीरों से भी जाना जा सकता है। यह परिवर्तन सरस्वती-सिंधु के क्षेत्रों में हुआ और इस कारण से सरस्वती का पानी नीचे चला गया और सरस्वती भूमिगत होकर गायब हो गई। अगर हम पानी के इस प्राचीन स्रोत को फिर से जीवित कर सकें तो यह पश्चिम और उत्तरी राजस्थान की सूखी धरती के लिए बहुत बड़ा उपकार होगा। 

लगभग इसी काल में एक वैश्विक सूखा पड़ा जिसके कारण संसार की सभ्यताएं प्रभावित हुईं और इसका दक्षिण योरप से लेकर भारत तक पर असर हुआ। करीब 2200 ईसा पूर्व में मेसोपोटेमिया की सुमेरियाई सभ्यता पूरी तरह खत्म हो गई। उस समय मिस्र में पुराना साम्राज्य इस जलवायु परिवर्तन के कारण समाप्त हो गया। श्रीमद्भागवत में एक स्थान पर कहा गया है कि श्रीकृष्णजी के भाई बलराम के कारण यमुना ने अपना रास्ता बदल दिया था, जो कि उस समय सरस्वती की एक प्रमुख उपधारा थी।

पर भूकम्पों जैसे बड़े भौगोलिक परिवर्तनों के चलते नदी की दोनों ही बड़ी धाराएं समाप्त हो गईं। इसका एक परिवर्तन यह भी हुआ कि राजस्थान का बहुत बड़ा इलाका बंजर हो गया। अगर आप भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे पर इस नदी के रास्ते का निर्धारण करना चाहें तो आप समझ सकते हैं कि यह सिंधु नदी के रास्ते पर करीब रही होगी। पुरातत्वविदों का कहना है कि तब भारतीय उपमहाद्वीप में जो सबसे पुरानी सभ्यता थी, उसे केवल सिंधु घाटी की सभ्यता कहना उचित न होगा, क्योंकि यह सिंधु और सरस्वती दोनों के किनारों पर पनपी थीं। डैनिनो जैसे शोधकर्ताओं की खोजों ने इस बात को सत्य सिद्ध किया है। 

वैज्ञानिक शोध : सरस्वती नदी कभी गंगा नदी से मिली या नहीं मिली, यह शोध का विषय अब भी बना हुआ है। वैदिक काल में एक और नदी दृषद्वती का वर्णन भी आता है। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकंप आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई।

एक और जहां सरस्वती लुप्त हो गई, वहीं दृषद्वती के बहाव की दिशा बदल गई। इस दृषद्वती को ही आज यमुना कहा जाता है। इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का आधा पानी यमुना (दृषद्वती) में गिर गया इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में 3 नदियों का संगम माना गया।

धार्मिक उल्लेख : महाभारत (शल्य पर्व) में सरस्वती नामक 7 नदियों का उल्लेख किया गया है। एक सरस्वती नदी यमुना के साथ बहती हुई गंगा से मिल जाती थी। ब्रजमंडल की अनुश्रुति के अनुसार एक सरस्वती नदी प्राचीन हरियाणा राज्य से ब्रज में आती थी और मथुरा के निकट अंबिका वन में बहकर गोकर्णेश्वर महादेव के समीपवर्ती उस स्थल पर यमुना नदी में मिलती थी जिसे 'सरस्वती संगम घाट' कहा जाता है। सरस्वती नदी और उसके समीप के अंबिका वन का उल्लेख पुराणों में हुआ है।

उस सरस्वती नदी की प्राचीन धारा भी अब नियमित रूप से प्रवाहित नहीं होती है। उसके स्थान पर 'सरस्वती' नामक एक बरसाती नाला है, जो अंबिका वन के वर्तमान स्थल महाविद्या के जंगल में बहकर जाता हुआ यमुना से मिलता है। साथ ही सरस्वती कुंड भी है। यह नाला मंदिर, कुंड और घाट उस प्राचीन नदी की धारा की विद्यमान के प्रमाण हैं। इनसे ब्रज की परंपरा प्रागैतिहासिक कालीन स्वायंभुव मनु से जुड़ जाती है। मथुरा के स्वामी घाट का पुराना नाम संयमन घाट है।

भारत के एक और ‍सिन्धु नदी और उसकी सहायक नदियां बहती हैं तो दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां बहती हैं। दोनों के बीच सरस्वती, यमुना और गंगा का जल भारत के हृदय में है। पांचों और उनकी सहायक नदियों से जुड़ा यह संपूर्ण क्षेत्र भारतवर्ष कहलाता था।

सरस्वती का उद्गम : वैदिक धर्मग्रंथों के अनुसार धरती पर नदियों की कहानी सरस्वती से शुरू होती है। सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती सर्वप्रथम पुष्कर में ब्रह्म सरोवर से प्रकट हुई।

सरस्वती का उद्गम, मार्ग और लीन : महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा-सा नीचे आदिबद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। प्राचीनकाल में हिमालय से जन्म लेने वाली यह विशाल नदी हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के रास्ते आज के पाकिस्तानी सिन्ध प्रदेश तक जाकर सिन्धु सागर (अरब की खड़ी) में गुजरती थी।

सरस्वती के निकट ही दृषद्वती नदी बहती थी। मनु ने सरस्वती और दृषद्वती नदियों के दोआब को 'ब्रह्मावर्त' प्रदेश की संज्ञा दी है। ब्रह्मावर्त का निकटवर्ती भू-भाग 'ब्रह्मर्षि प्रदेश' कहलाता था। उसके अंतर्गत कुरु, मत्स्य, पंचाल और शूरसेन जनपदों की स्थिति मानी गई है। -मनुस्मृति (2-17,16, 20)

पुराणों के अनुसार आदिम मनु स्वायंभुव का निवास स्थल सरस्वती नदी के तट पर था। कहा जाता है कि कार्तिकेय (शिव के पुत्र जिनका एक नाम स्कंद भी है) को सरस्वती के तट पर देवताओं की सेना का सेनापति (कमांडर) बनाया गया था।

चंद्रवंशी राजकुमार पुरुरवा को उनकी भावी पत्नी उर्वशी भी यहीं मिली थी। पहले कुरुओं का स्थान सिंधु तट था बाद में सरस्वती तट हो गया। संसार में हैहयी वंशियों के आतंक का खात्मा करने के बाद परशुराम ने इसी नदी के पवित्र करने वाले जल में स्नान किया था। एक लंबे समय तक चलने वाला युद्ध महाभारत भी सरस्वती नदी के किनारों पर लड़ा गया था, हालांकि उस वक्त यह नदी लुप्त हो रही थी।

सरस्वती के तीर्थ : पुष्कर में ब्रह्म सरोवर से आगे सुप्रभा तीर्थ से आगे कांचनाक्षी से आगे मनोरमा तीर्थ से आगे गंगाद्वार में सुरेणु तीर्थ, कुरुक्षेत्र में ओधवती तीर्थ से आगे हिमालय में विमलोदका तीर्थ हैं। उससे आगे सिन्धुमाता से आगे जहां सरस्वती की 7 धाराएं प्रकट हुईं, उसे सौगंधिक वन कहा गया है। उस सौगंधिक वन में प्लक्षस्रवण नामक तीर्थ है, जो सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।

रेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्त हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगी। सरस्वती पश्‍चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुंची। अपनी 7 धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त सारस्वत' कहलाया। यहां मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती 'अरुणा' नाम से प्रकट हुई। अरुणा सरस्वती की 8वीं धारा बनकर धरती पर उतरी। अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिल गई।

अधिकतर इतिहासकार भारत के इतिहास की पुख्ता शुरुआत सिंधु नदी की घाटी की मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता से मानते थे लेकिन अब जबसे सरस्वती नदी की खोज हुई है भारत का इतिहास बदलने लगा है। अब माना जाता है कि यह सिंधु घाटी की सभ्यता से भी कई हजार वर्ष पुराना है। ऋग्वेद की ऋचाओं में कहा गया है कि यह एक ऐसी नदी है जिसने एक सभ्यता को जन्म दिया। इसे भाषा, ज्ञान, कलाओं और विज्ञान की देवी भी माना जाता है।

हड़प्पा, सिंधु और मोहनजोदड़ों सभ्यता का प्रथम चरण 3300 से 2800 ईसा पूर्व, दूसरा चरण 2600 से 1900 ईसा पूर्व और तीसरा चरण 1900 से 1300 ईसा पूर्व तक रहा। इतिहासकार मानते हैं कि यह सभ्यता काल 800 ईस्वी पूर्व तक चलता रहा। लेकिन अभी सरस्वती की सभ्यता को खोजा जाना बाकी है।

सदी की शुरुआत में एक हंगेरियाई पुरातत्वविद ऑरेल स्टीन ने हड़प्पाकालीन स्थलों की पहचान की है, जो कि भारत में हरियाणा से लेकर पाकिस्तान के पंजाब तक में स्थि‍त हैं। सरस्वती के तल के पास बहुत अधिक पुरातात्विक महत्व के स्थल मौजूद हैं जिनकी संख्या करीब 360 है जबकि सिंधु के किनारे ऐसे स्थलों की संख्या मात्र 3 दर्जन है। सरस्वती के प्राचीन मार्ग के पास करीब 300 से अधिक स्थलों की मौजूदगी का पता लगाया जा चुका है। 

इस नई खोज से यह बात भी सिद्ध होती है कि हड़प्पाकालीन सभ्यता का पतन कैसे हुआ? हालांकि प्राचीन पुराविदों का मानना है कि यह सभ्यता उत्तर से आए भूरी चमड़ी वाले, रथों पर सवार, घोड़ों को अपने वश में रखने वाले और लोहे का इस्तेमाल करने वाले आर्यों के हमलों से नष्ट हो गई। लेकिन इस बात का दावा किया जा सकता है कि भारत की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में क्षेत्र की भौगोलिक स्थितियों में बड़े पैमाने पर हुए बदलाव के कारण संभव हुआ।

इसी बात का समर्थन करने वाला एक और अध्ययन 2003 से लेकर 2008 में किया गया। यह अध्ययन रोमानिया, पाकिस्तान, भारत, ब्रिटेन और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने किया था। अपनी अत्याधुनिक जियोसाइंस तकनीक के बल पर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि हड़प्पाकालीन लोग अनुकूल और सहायक स्थितियों में रहा करते थे और उस समय पर्याप्त वर्षा होती थी लेकिन 4 हजार वर्ष पहले स्थितियों में बदलाव आना शुरू हुआ। 

सरस्वती जैसी बड़ी और चौड़ी नदी के रास्ते में बदलाव से इसकी सहायक ‍नदियों में बाढ़ आ गई और इनका रास्ता भी बदल गया। जब नदी का पानी कम हो गया तो सूखा पड़ना स्वाभाविक था और इसके किनारे बसे बड़े शहर और बस्तियों के लोगों को उत्तर, पश्चिम और पूर्व की ओर भागना पड़ा। पूर्व की ओर लोगों के पलायन से सरस्वती के साथ जो पवित्र गुण जुड़े हुए थे वे गंगा जैसी दूसरी नदियों के साथ जोड़े जाने लगे। 

हड़प्पा काल के शुरुआती स्थल घग्घर-हाकरा नदी घाटी में थे, कुछ सिंधु घाटी में तो कुछ गुजरात में थे। बाद के समय में घग्घर-हाकरा घाटी में ऐसे स्थलों की संख्या कम होती गई और गंगा के मैदान तथा सौराष्ट्र में बढ़ गई। वास्तव में, सारस्वत ब्राह्मण समुदाय अपनी उत्पति को सरस्वती नदी के किनारों से जोड़कर देखता है। ये लोग उत्तर में कश्मीर से लेकर पश्चिम में कच्छ और दक्षिण में कोंकण क्षेत्र तक में फैले हैं।

बीसीई (बिफोर कॉमन ईरा) के वर्ष 1900 में परिपक्व हड़प्पा स्थल समाप्त हो गए और इसके निवासी बसने के लिए नए स्थानों की खोज करने लगे थे। जल्दी में छोटे-छोटे गुटों में बंटकर ये लोग सतलुज और घग्घर के पूर्वी किनारों पर पहुंचे और धीरे-धीरे यमुना की ओर बढ़ते गए। मोहनजोदड़ो और सिंध के पश्च‍िमी हिस्सों के शरणार्थी सौराष्ट्र भाग गए और बाद में ये प्रायदीप के भीतरी हिस्से में बस गए।


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