Friday, 1 May 2015

विश्वास और अविश्वास के पार -

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥

जो अज्ञ यानी आत्मज्ञान से रहित है, जो अश्रद्धालु है और जो संशयात्मा है - ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं; परन्तु जैसा संशयात्मा नष्ट होता है, वैसे नहीं, क्योंकि इन सब में संशयात्मा अधिक पापी है। अधिक पापी कैसे है? सो कहते हैं - संशयात्मा को अर्थात जिसके चित्त में संशय है उस पुरुष को न तो यह साधारण मनुष्य लोक मिलता है, न परलोक मिलता है और न सुख ही मिलता है, क्योंकि वहाँ भी संशय होना संभव है, इसलिए संशय नहीं करना चाहिए।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय - ४, श्लोक - ४०)
यहाँ 'संशय' शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। विश्वास या अविश्वास की उत्पत्ति का बीज संशय है I जैसे प्रेमी कहे, मेरा मेरी प्रेमिका पर विश्वास है, इसका मतलब है, प्रेमी को कहीं ना कहीं अपनी प्रेमिका पर शक है I ऐसे भी लौकिक प्रेम का आधार विश्वास ही है। क्या कृष्ण का राधा पर विश्वास था ? क्या कृष्ण पर राधा विश्वास करती थीं ? राधा और कृष्ण का प्रेम विश्वास और अविश्वास के परे था। इसीलिए राधा और कृष्ण का प्रेम आदर्श है। विश्वास की उपस्थिति में ही विश्वासघात और अन्धविश्वास होता है I और विश्वास कभी भी अविश्वास में परिवर्तित हो सकता है I इसी प्रकार अविश्वास भी कभी भी विश्वास में परिवर्तित हो ही सकता है। कोई नहीं कहता है, मुझे न्यूटन की गति के सिद्धांत पर विश्वास  है क्योंकि गति का नियम सिद्ध है; कोई संशय नहीं है।
स्पष्ट है, जिसका किसी भी विषय / व्यक्ति पर विश्वास या अविश्वास है वह संशयात्मा है। यदि हम आत्मविश्लेषण करें तो पाएंगे कि हमारा पूरे का पूरा अस्तित्व ही विश्वास और अविश्वास पर टिका हुआ है। हमारे वैवाहिक सम्बन्ध, रक्त सम्बन्ध, मैत्री सम्बन्ध, सहकर्मियों के साथ सम्बन्ध सभी विश्वास पर टिके हुए हैं अतः संदेह के दायरे में हैं। यह तो कुछ भी नहीं, अपने विषय में हमें ये तक पता नहीं कि मृत्यु के बाद हम रहेंगे भी या नहीं। अतः अपने अस्तित्व तक पर हमें संशय है। हम सब संशयात्मा हैं।  किसी देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विश्व का सबसे धनी व्यक्ति, सर्वोच्च सम्मान  प्राप्त व्यक्ति, सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम गायक, सब के सब संशयात्मा हैं।
विज्ञान जगत जड़ तत्त्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को रौंद कर हमारे समक्ष जड़ वस्तुओं और सिद्धांतों को प्रस्तुत कर रहा है और हम सब उस विज्ञान की स्तुति में लग गए हैं, जो तनिक भी स्तुति के योग्य नहीं है। क्यों स्तुति कर रहे हैं ? क्योंकि विज्ञानं अपने सिद्धांतों को सिद्ध कर रहा है। यही कारण कि  हम सब ने जड़ता की ओर कदम बढ़ा दिया है।
यदि  कोई गुरु भगवान् पर विश्वास करने को कहता है (सिद्ध नहीं करता है), तो ऐसे गुरु का यथाशीघ्र त्याग कर देना चाहिए।  जो स्वयं ही संशयात्मा है वह आपका संशय क्या  दूर करेगा। बल्कि, वह गुरु भी हम सब के साथ ही खड़ा है।
जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अनुसन्धान में तब तक लीन रहता है जब तक उसका अनुसन्धान पूरा नहीं हो जाता है। इस बीच में वह क्या खा रहा है, क्या पी रहा है, क्या पहन रहा है, कहाँ रह रहा है इसकी उसे कोई सुध नहीं रहती है। ठीक उसी प्रकार हमें भी अनुसन्धान करना है। गुरु की तलाश छोड़िये और आज ही स्वयं आत्मानुसंधान आरम्भ कर दीजिये। स्वयं को भगवान् को सौंप दीजिये। आपने अवश्य ही सुना है "कृष्णम् वन्दे जगदगुरु" ! भगवान् ही गुरु  रूप से आपका मार्गदर्शन करेंगे। शर्त एक ही है कि भगवान् के प्रति अनन्य (न अन्य) भाव अनिवार्य है।


जय श्री कृष्ण !! 


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1 comment:

  1. जिसे भगवान में मन लग जाय उसे दुनिया के रीति रिवाज़ से क्या मतलब | अपने को भगवान का निमिक्त मात्र मानकर जग में अपना व्यवहार करते हैं | ऐसे लोगों की जिंदगी सदा आदर्शमय और दूसरों का पथप्रदर्शक होते हैं |

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